मेट्रोपोलिस के अध्ययन से पता चलता है कि, 50-60 आयु वर्ग में नियंत्रित डायबिटीज के ख़राब स्तर से जुड़े मामलों की संख्या सबसे अधिक है
मुंबई, 13 नवंबर, 2019: मेट्रोपोलिस हेल्थकेयर ने पिछले 5 सालों में मुंबई में HbA1c के कुल 532182 नमूनों का परीक्षण किया, जिनमें से अधिकतम 25% मरीजों को नियंत्रित डायबिटीज के ख़राब स्तर से पीड़ित पाया गया।
नियंत्रित डायबिटीज के ख़राब स्तर से जुड़े मामलों की सबसे ज्यादा संख्या 50-60 आयु वर्ग (लगभग 32%) में पाई गई, जिसके बाद 60-70 वर्ष (लगभग 29%) और 40-50 वर्ष (27.6%) के लोगों का स्थान आता है। ऐसे मामलों की सबसे कम संख्या 20-30 वर्ष (10%) के आयु वर्ग में पाई गई, लेकिन यह धीरे-धीरे बढ़ते हुए 50-60 आयु वर्ग में उच्चतम स्तर तक पहुंच गया। इसके बाद बुजुर्ग लोगों के आयु समूहों में लगातार गिरावट देखी गई।
दिलचस्प बात यह है कि, परीक्षण की गई सभी महिलाओं में से 22.7% नियंत्रित डायबिटीज के ख़राब स्तर से पीड़ित पाई गईं, जबकि पुरुषों के लिए यह आंकड़ा 28% है।
मुंबई में कंपनी के ग्लोबल रेफरेंस लैबोरेट्री में जांच किए गए आधे मिलियन से अधिक नमूनों में से लगभग 23% नमूने प्री-डायबिटिक स्टेज में पाए गए, लगभग 29% नमूने डायबिटिक पाए गए, जबकि 22.6% नमूने नॉन-डायबिटिक थे।
HbA1c के लिए जांचे गए लगभग 25% नमूनों में से लगभग 8% में इसका स्तर अधिक पाया गया, जिसका मतलब है कि उनका ब्लड ग्लूकोज़ लेवल नियंत्रित नहीं है। अगर मरीज के ब्लड ग्लूकोज़ का लेवल लंबे समय तक उच्चतम रहे, तो इससे डायबिटीज से जुड़ी जटिल समस्याओं के पैदा होने का खतरा बढ़ जाता है।
(कृपया नीचे की तालिका में दिए गए आंकड़ों पर ग़ौर करें।)
मुंबई में HbA1c के लिए जांचे गए 532182 नमूनों का विश्लेषण | ||||
आयु वर्ग | सामान्य | प्री–डायबिटिक | डायबिटिक | नियंत्रित डायबिटीज का ख़राब स्तर |
20 से 30 | 65.07 | 17.49 | 7.41 | 10.03 |
30 से 40 | 42.33 | 23.92 | 16.00 | 17.75 |
40 से 50 | 21.68 | 24.36 | 26.33 | 27.63 |
50 से 60 | 11.33 | 22.60 | 34.05 | 32.02 |
60 से 70 | 8.82 | 22.08 | 39.85 | 29.25 |
70 से 80 | 9.35 | 24.78 | 42.17 | 23.70 |
80 वर्ष से अधिक | 13.05 | 29.61 | 39.51 | 17.84 |
औसत | 22.67 | 23.02 | 28.95 | 25.36 |
लिंग | सामान्य | प्री–डायबिटिक | डायबिटिक | नियंत्रित डायबिटीज का ख़राब स्तर |
महिला | 26.64 | 24.11 | 26.52 | 22.73 |
पुरुष | 18.54 | 21.89 | 31.48 | 28.09 |
इस अध्ययन पर टिप्पणी करते हुए, मेट्रोपोलिस हेल्थकेयर लिमिटेड के लैब के उप–प्रमुख, डॉ. मयूर निगालये ने कहा: “भारत में डायबिटीज एक बड़ी चुनौती बनती जा रही है, जहां 20 से 70 वर्ष की आयु की लगभग 8.7% आबादी इससे पीड़ित है। डायबिटीज तथा अन्य गैर-संचारी रोगों के बड़े पैमाने पर विस्तार के कई कारण हैं- जैसे कि तेज़ी से होने वाला शहरीकरण, गतिहीन जीवन-शैली, स्वास्थ्य के लिए हानिकारक खान-पान, तथा शराब एवं तंबाकू का अनियंत्रित तरीके से सेवन। सामान्य जीवन-शैली में बदलाव2 (नींद, व्यायाम और खान-पान में सुधार) के साथ-साथ नियमित निगरानी, डायबिटीज को नियंत्रित करने के लिए आवश्यक है।
इस आंकड़े के विश्लेषण के उद्देश्य के लिए:
- HbA1c के लिए जांचे गए नमूनों में 5 वर्षों की अवधि के आंकड़ों को शामिल किया गया था
- नमूने में दोहराए गए मरीजों के आंकड़े को हटा दिया गया था और अध्ययन के लिए एक मरीज के केवल एक बार की रीडिंग का इस्तेमाल किया गया था
- वर्ष 2019 के ADA दिशानिर्देशों के रेफरेंस-रेंज के अनुरूप ही नमूनों का विश्लेषण किया गया था
HbA1c के लिए ADA के वर्ष 2019 का रेफरेंस–रेंज
परिणामों की सीमा 5.7% से कम – सामान्य
परिणामों की सीमा 5.7% से 6.5% के बीच- प्री-डायबिटिक
परिणामों की सीमा 6.5% से ज्यादा और 8% से कम- डायबिटिक
परिणामों की सीमा 8% से ज्यादा- नियंत्रित डायबिटीज का ख़राब स्तर
A1C परीक्षण – सुझाव
- उपचार के लक्ष्यों को पूरा करने वाले मरीजों (और जिनका ग्लाइसेमिक नियंत्रित है) के लिए साल में कम-से-कम दो बार A1C परीक्षण किया जाए।
- जिन मरीजों की चिकित्सा में बदलाव आया है या जो ग्लाइसेमिक लक्ष्यों को पूरा नहीं कर रहे हैं, उनके लिए कम-से-कम 3 महीने में एक बार A1C परीक्षण किया जाए।
- A1C के लिए प्वाइंट-ऑफ-केयर जांच से बिल्कुल सही समय पर उपचार में बदलाव का अवसर मिलता है।
- 1 यूनाइटेड किंगडम प्रॉस्पेक्टिव डायबिटीज स्टडी ग्रुप: पारंपरिक उपचार तथा टाइप 2 डायबिटीज मरीजों में जटिलताओं के जोखिम की तुलना में सल्फ़ोनीलुरेस या इंसुलिन के साथ गहन रक्त-शर्करा नियंत्रण (UKPDS 33)। लैंसेट 352: 837-853, 1998
- 2 न्यूट्रिशन एंड लाइफ़स्टाइल इंटरवेंशन इन टाइप 2 डायबिटीज: नीदरलैंड में प्रारंभिक अध्ययन के बाद ग्लूकोज नियंत्रण में सुधार तथा ग्लूकोज नियंत्रित करने वाली दवा में कमी की बात सामने आई (Pot GK, et al. bmjnph 2019;0:1–8.)। ब्रिटिश मेडिकल जर्नल, प्रिवेंशन एंड हेल्थ
टाइप-2 डायबिटीज भी डायबिटीज का ही एक प्रकार है जिसमें ब्लड शुगर का लेवल अधिकतम होता है, इंसुलिन का रेजिस्टेंस बढ़ जाता है और इंसुलिन का स्राव अपेक्षाकृत कम हो जाता है। टाइप-2 डायबिटीज के लक्षण कुछ सालों बाद नज़र आते हैं और मरीज की समय-समय पर जांच या निगरानी नहीं की जाने पर, संभव है कि इसका पूरी तरह से डायग्नोसिस नहीं हो पाए। कई मामलों में, इस रोग की शुरुआत के कई सालों के बाद, या फिर जटिल परिस्थितियों के उत्पन्न हो जाने के बाद इसकी डायग्नोसिस की जाती है।
टाइप-2 डायबिटीज से संबंधित जटिलताएं
टाइप-2 डायबिटीज से संबंधित जटिलताओं से बचने के लिए ब्लड ग्लूकोज़ के लेवल को नियंत्रित करना बेहद जरूरी होता है। अपने डाइटिशियन / डॉक्टर की सलाह के अनुसार खान-पान, नियमित शारीरिक व्यायाम, निर्धारित दवाओं का सेवन तथा नियमित तौर पर जांच से इसकी जटिलताओं की रोकथाम में मदद मिल सकती है। इस तरह की जटिलताएं कई सालों में विकसित होती हैं और इससे सीधे तौर पर ब्लड ग्लूकोज़ का लेवल बढ़ जाता है जिससे ब्लड वेसल्स को नुकसान होता है। छोटे-छोटे ब्लड वेसल्स को होने वाले नुकसान से माइक्रो-वस्कुलर जटिलताएं पैदा हो सकती हैं, जबकि बड़े वेसल्स को होने वाला नुकसान मैक्रो-वस्कुलर जटिलताओं का कारण बनता है।
माइक्रो–वस्कुलर जटिलताएं: आँख, किडनी और नर्व्ज़ (तंत्रिका) से संबंधित हैं
आँख: ब्लड ग्लूकोज़ का लेवल अगर लंबे समय तक असामान्य रहे, तो इससे मोतियाबिंद और / या रेटिनोपैथी हो सकता है और अंततः देखने की क्षमता कम या पूरी तरह खत्म हो सकती है। इसलिए ब्लड ग्लूकोज़ के लेवल की निगरानी करना और नेत्र-रोग विशेषज्ञ से हर साल अपने आँखों की जांच कराना बेहद जरूरी है।
किडनी: ब्लड ग्लूकोज़ का लेवल अगर लंबे समय तक असामान्य रहे, तो इससे डायबिटिक नेफ्रोपैथी हो सकती है और अगर इसका इलाज नहीं किया जाए तो किडनी ख़राब हो सकती है जिसके परिणामस्वरूप लंबी अवधि तक डायलिसिस और / या किडनी ट्रांसप्लांट कराना पड़ सकता है। डायबिटिक नेफ्रोपैथी की रोकथाम के लिए, ब्लड शुगर की नियमित जांच के साथ-साथ माइक्रो-एल्ब्यूमिन्यूरिया का परीक्षण कराना भी जरूरी है। दवाओं के नियमित इस्तेमाल से किडनी की ख़राबी की रोकथाम करना या आगे ख़राब होने से रोकना संभव है।
नर्व्ज़ (तंत्रिका): लंबे समय तक डायबिटीज से तंत्रिका कोशिकाओं पर बुरा असर पड़ सकता है, जिसे डायबिटिक न्यूरोपैथी (पेरीफेरल, ऑटोनामिक, प्रॉक्सिमल तथा फोकल न्यूरोपैथी) कहते हैं। पेरीफेरल न्यूरोपैथी तंत्रिका कोशिकाओं को होने वाले नुकसान का सबसे सामान्य रूप है, जो अक्सर हाथों और पैरों से संबंधित नसों को प्रभावित करता है। डायबिटिक पेरीफेरल न्यूरोपैथी के मामले में सबसे गंभीर स्थिति में पैरों की त्वचा की संवेदना खत्म हो सकती है, और इसके परिणामस्वरूप गहरे जख्म हो सकते हैं। घाव का संक्रमण पूरे पैर में फैल सकता है और इलाज नहीं किए जाने पर संक्रमण को फैलने से रोकने के लिए पैर को काटना पड़ सकता है।
मैक्रो–वस्कुलर जटिलताएं: हृदय, मस्तिष्क और ब्लड–वेसल्स से संबंधित हैं
टाइप-2 डायबिटीज या ब्लड शुगर लेवल बढ़ जाने से हृदय रोगों का खतरा उत्पन्न हो सकता है, और इस तरह प्लैक का निर्माण होता है जिसके परिणामस्वरूप हार्ट अटैक, स्ट्रोक या पैरों के वेसल्स में रुकावट (DVT) होती है।
शोध के परिणाम बताते हैं कि, टाइप-2 डायबिटीज वाले लोग जो अपने HbA1c स्तर को 1% कम करते हैं: [1]
- उनमें मोतियाबिंद विकसित होने की संभावना 19% कम होती है
- उनमें हृदय रोगों की संभावना 16% कम होती है
- पेरीफेरल वस्कुलर डिजीज के कारण अंग-विच्छेद या मृत्यु की संभावना 43% कम होती है
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HbA1c क्या है?
HbA1c शब्द ग्लाइकेटेड हीमोग्लोबिन के बारे में बताता है। यह उसी स्थिति में विकसित होता है, जब लाल रक्त कोशिकाओं में मौजूद एक प्रोटीन जो आपके पूरे शरीर में ऑक्सीजन पहुंचाता है, यानी कि हीमोग्लोबिन रक्त में ग्लूकोज के साथ मिल जाता है और ‘हीमोग्लोबिन का ग्लाइकेशन’ होता है। ग्लाइकेटेड हीमोग्लोबिन (HbA1c) को मापकर, डॉक्टरों को अच्छी तरह मालूम हो सकता है कि पिछले 3 महीनों के दौरान A1C से अधिक औसत ब्लड शुगर का लेवल क्या रहा है।डायबिटीज के मरीजों के लिए यह बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि HbA1c जितना अधिक होगा डायबिटीज से संबंधित जटिलताओं के विकसित होने का जोखिम भी उतना ही अधिक होगा।